मुझे
वो कमरा अब
भी साफ नज़र आता है
उसकी दीवारें कभी हरे
रंग की हुआ करती थी
और एक कोने में पीले
रंग की खिड़की थी
जहां
से मैं तुम्हें रोज़ जाते हुए देखा
करती थी
उस
खिड़की पर अक़सर कौवे बैठा करते थे
और
मैं उन्हें खिलाने की कोशिश करती थी
वहां से काँच की चीज़े
भी बाहर फैंका करती थी
कभी
एक चुराया हुआ ग्लास तो कभी बोतल
मुझे काँच का टूटकर बिखरना बेहद पसंद
था
आज भी है लेकिन मैं कुछ
तोड़ नहीं पाती हूँ
उस
कमरे मैं और
एक खिड़की हुआ करती थी
वो भी पीले
रंग की थी
पर मुझे पसंद
नहीं थी
क्योंकि वहां से
मैं तुम्हें जाते
हुए नहीं देख
पाती थी
वहां
से हाथ
फैलाकर तुम्हें पुकार
नहीं पाती थी
और
रोते हुए तुमसे कह नहीं पाती
थी की मत
जाना
लौट
के आना और
फिर से छोड़ने की कोशिश नहीं करना
पर तुम कभी पीछे नहीं मुड़े और ना ही लौट आये
फिर भी वो कमरा और पीले रंग की खिड़की याद आती है
और जब भी कोई चला जाता है तो मैं रोक नहीं पाती हूँ
ना जानेवाले को और ना ही उन टपकते हुए आसूंओं को
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