कल शाम, मैंने पहली बार शब्दों में कुछ बयान किया और उन शब्दों को कागज़ पर क़ैद करते ही मुझे तुम्हारी याद आयी.
काश, तुम यह पढ़ सकते.
काश मैं तुम्हें इसकी, एक झलक दिखा सकती.
काश, उन दिनों मुझे तुम्हारी बातों पर यकीन होता.
काश मैं तुम्हें समझ सकती .
काश मैं खुद को पहचान पाती.
मेरा यह मानना नहीं है कि ज़िन्दगी अलग होती या फिर हम कोई और होते. ज़िन्दगी शायद अब वैसे ही है जैसे होनी चाहिए थी. तुम्हारा मेरे पास होना या न होना बराबर सा ही तो है. हमारा साथ रहना या बिछड़ जाना शायद एक ही बात है.
अगर कुछ अलग होता तो शायद यह ज़मीन और आसमान ही अलग होते.
और उनके बीच का वह हिस्सा जहाँ हमरी बातें अब तक अटकी हैं.
अगर कुछ अलग होता, तो यह चाँद और सूरज अलग होते जिनके दरमियाँ हमारी चाहतों के निशान अब तक मिटे नहीं है.
अगर कुछ अलग होता, तो यह हवा और पानी ही अलग होते जहाँ शायद अब तक हमारा खून मिला हुआ है.
प्यार तो हमने किया ही नहीं, तो फिर क्या और कुछ कैसे अलग होता?
बस यह साँसे अलग होती जिन्हें अब तक हमारी रूह समेटे हुई है.
और तो कुछ अलग नहीं होता.
No comments:
Post a Comment